Kaveri Engine : क्या है कावेरी इंजन की कहानी, चुनौतियां और आत्मनिर्भरता का सपना?

क्या आपने कभी सोचा है कि जब हमारा देश एक शानदार फाइटर जेट बनाता है, तो उसका इंजन कौन बनाता है? दिमाग में तुरंत अमेरिकी, रूसी या यूरोपीय देशों के नाम क्यों आते हैं? इसकी वजह है कि इंजन के विकास में भारत ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. इसी कहानी के केंद्र में है एक महत्वाकांक्षी परियोजना – कावेरी इंजन

यह आर्टिकल आपको बताएगा कि कावेरी इंजन क्या है, इसके विकास में कौन सी बड़ी चुनौतियाँ आईं, इसकी वर्तमान स्थिति क्या है और भारत के लिए स्वदेशी जेट इंजन क्यों ज़रूरी है. यह सिर्फ एक इंजन की कहानी नहीं, बल्कि भारत के दशकों पुराने आत्मनिर्भरता के सपने की ज़मीनी हकीकत है.

kaveri engine made by drdo
Source: DRDO

कावेरी इंजन: एक सपना, 38 साल का इंतज़ार और बहुत कुछ

कहानी शुरू होती है 1986 में. भारत तब अपना खुद का लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (LCA) तेजस विकसित कर रहा था. तभी DRDO (रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन) के तहत आने वाली GTRE (गैस टरबाइन रिसर्च एस्टेब्लिशमेंट) को एक बड़ा और महत्वाकांक्षी लक्ष्य दिया गया: तेजस के लिए एक पूरी तरह स्वदेशी जेट इंजन बनाना. इस प्रोजेक्ट का नाम रखा गया ‘कावेरी’ (GTX-35VS Kaveri)। इसका सीधा और सबसे अहम मकसद था, भविष्य में भारत को फाइटर जेट के इंजन के लिए किसी भी विदेशी देश पर निर्भर न रहना पड़े. ये उस समय के आत्मनिर्भर भारत के सपने की पहली बड़ी उड़ान थी.

शुरू में योजना थी कि कावेरी इंजन 1996 तक बनकर तैयार हो जाएगा और इसकी अनुमानित लागत लगभग 382 करोड़ रुपये होगी. लेकिन, जैसा कि अक्सर बड़े और बेहद जटिल तकनीकी प्रोजेक्ट्स में होता है, कावेरी इंजन के विकास में कई अप्रत्याशित चुनौतियाँ सामने आईं. इन्हीं चुनौतियों ने इस प्रोजेक्ट को लंबा खींचा और इसकी लागत भी काफी बढ़ा दी.


विकास के रोड़े: क्यों उलझी इंजन की कहानी?

कावेरी इंजन का विकास आसान काम नहीं था. इसकी राह में कई बड़ी बाधाएँ आईं, जिन्होंने प्रोजेक्ट की गति धीमी कर दी और उसे अपने मूल लक्ष्य से भटका दिया:

तकनीकी जटिलताएँ: ‘दम’ कम, वज़न ज़्यादा और बाक़ी परेशानियां

जेट इंजन बनाना बच्चों का खेल नहीं. ये हवाई जहाज़ के लिए इंजन नहीं, बल्कि ‘पावरहाउस’ होता है. कावेरी के साथ भी कुछ ऐसी ही मुश्किलें पेश आईं:

  • थ्रस्ट (Thrust) की कमी: तेजस जैसे फाइटर जेट को दुश्मनों को चकमा देने और भारी हथियार ले जाने के लिए ज़बरदस्त शक्ति (थ्रस्ट) चाहिए होती है. कावेरी इंजन, तय मानकों के अनुसार, तेजस के लिए पर्याप्त थ्रस्ट पैदा नहीं कर पा रहा था. यानी, ‘दम’ कम पड़ रहा था.
  • अधिक वज़न: इंजन का वज़न भी निर्धारित सीमा से ज़्यादा था. फाइटर जेट के लिए हर किलो वज़न मायने रखता है, क्योंकि यह सीधे तौर पर उसकी गति, उड़ान क्षमता और हथियार ले जाने की क्षमता को प्रभावित करता है. अगर इंजन ही भारी हो, तो विमान ‘तेजस’ नहीं, ‘सुस्त’ हो जाएगा.
  • उन्नत सामग्री का अभाव: जेट इंजन बहुत ज़्यादा तापमान और दबाव पर काम करते हैं. इसके लिए खास ‘सुपरअलॉय’ और सिरेमिक मैट्रिक्स कंपोजिट (CMCs) जैसी उन्नत धातुओं और सामग्रियों की ज़रूरत होती है, जिन्हें भारत में विकसित करने में काफी समय लगा. उस समय भारत में इनका उत्पादन भी सीमित था.
  • परीक्षण सुविधाओं की कमी: इंजन को विभिन्न ऊँचाइयों और अलग-अलग मौसम की परिस्थितियों में टेस्ट करने के लिए भारत में पर्याप्त और अत्याधुनिक सुविधाएँ नहीं थीं. इसके लिए कुछ परीक्षण रूस जैसे देशों में करने पड़े, जिससे प्रोजेक्ट में देरी और अतिरिक्त लागत आई.
  • डिज़ाइन और इंजीनियरिंग अनुभव: जेट इंजन दुनिया की सबसे जटिल इंजीनियरिंग परियोजनाओं में से एक है. इसकी सूक्ष्म-स्तरीय डिज़ाइन, फ्लूइड डायनामिक्स, दहन तकनीक (combustion technology) और पुर्जों के निर्माण में उस समय भारत का अनुभव काफी कम था. मान लीजिए, कोई पहली बार बिरयानी बना रहा हो, तो मसाला थोड़ा ऊपर-नीचे हो सकता है.

फंडिंग की किल्लत और अंतर्राष्ट्रीय ‘ब्रेक’

तकनीकी दिक्कतों के अलावा, दो और बड़े झटके लगे:

  • पर्याप्त फंडिंग और संसाधन की कमी: शुरुआत में, प्रोजेक्ट को आवश्यक गति देने के लिए पर्याप्त वित्तीय सहायता नहीं मिली. DRDO के अधिकारियों ने कई बार यह बताया है कि उन्हें जितनी रकम चाहिए थी, उतनी नहीं मिल पाई, जिससे रिसर्च और डेवलपमेंट धीमी गति से हुई.
  • अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों का असर: 1998 में भारत के परमाणु परीक्षणों के बाद, कई देशों ने भारत पर प्रतिबंध लगा दिए. इससे कावेरी इंजन के लिए ज़रूरी विदेशी तकनीक, विशेष पुर्ज़े और एक्सपर्ट सपोर्ट मिलना बेहद मुश्किल हो गया, जिसने प्रोजेक्ट को और बड़ा झटका दिया.

इन तमाम चुनौतियों के चलते, 2008 में कावेरी इंजन को औपचारिक रूप से तेजस विमान कार्यक्रम से ‘अलग’ कर दिया गया. तब से तेजस के लिए अमेरिकी GE F404 और F414 इंजन का इस्तेमाल किया जा रहा है. यानी, घर का बेटा (तेजस) तो बन गया, लेकिन उसे चलाने के लिए ‘बाहरी’ दिल लगाना पड़ा.


क्या कावेरी इंजन अब ‘इतिहास’ बन गया? नहीं, ‘कायापलट’ जारी है!

भले ही कावेरी इंजन को तेजस के लिए उसकी मूल भूमिका से हटा दिया गया, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि ये प्रोजेक्ट पूरी तरह से बंद हो गया. DRDO और GTRE ने इस पर काम जारी रखा. अब इसका फोकस तेजस को शक्ति देने से हटकर, कुछ अन्य महत्वपूर्ण और भविष्योन्मुखी क्षेत्रों में चला गया है:

नए अवतार में कावेरी: ड्रोन, जहाज़ और फ्यूचर टेक्नोलॉजी

  • घातक UAV (DRDO Ghatak UCAV) के लिए: कावेरी का एक ‘ड्राई वेरिएंट’ (बिना आफ्टरबर्नर वाला) अब भारत के स्वदेशी स्टील्थ अनमैन्ड कॉम्बैट एरियल व्हीकल (UCAV) ‘घातक’ के लिए विकसित किया जा रहा है. इसका थ्रस्ट 49-51 kN है, जो मानवरहित ड्रोन के लिए पर्याप्त माना जाता है. यह भारत के भविष्य के मानवरहित युद्ध प्रणाली के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण कदम है.
  • कावेरी मरीन गैस टरबाइन (KMGT): कावेरी इंजन के मुख्य भाग का इस्तेमाल करके भारतीय नौसेना के जहाज़ों के लिए भी एक शक्तिशाली गैस टरबाइन इंजन (12 MW) विकसित किया गया है. यह समुद्री जहाज़ों को गति प्रदान करने में सक्षम है और नौसेना की स्वदेशीकरण की मुहिम में एक महत्वपूर्ण योगदान देगा.
  • तकनीकी ज्ञान का विकास: कावेरी प्रोजेक्ट भले ही अपने मूल लक्ष्य में पूरी तरह सफल न हुआ हो, लेकिन इसने भारत को जेट इंजन टेक्नोलॉजी में अमूल्य अनुभव और गहरा ज्ञान दिया है. इससे सिंगल-क्रिस्टल ब्लेड टेक्नोलॉजी, एडवांस्ड मटीरियल्स, डिजिटल इंजन कंट्रोल (FADEC) और हाई-टेंपरेचर टेस्टिंग जैसी अति-महत्वपूर्ण क्षमताओं में भारत की विशेषज्ञता बढ़ी है. यह अनुभव भविष्य में और भी शक्तिशाली स्वदेशी इंजनों को विकसित करने के लिए एक मज़बूत नींव का काम करेगा. इसे ऐसे समझिए, अगर एक बार दाल जल भी जाए, तो अगली बार आदमी फूंक-फूंक कर पानी पीता है.

आत्मनिर्भरता की कसौटी: क्यों ज़रूरी है स्वदेशी जेट इंजन का सफल होना?

कावेरी इंजन का सफल होना भारत के लिए केवल एक तकनीकी उपलब्धि नहीं है, बल्कि यह रणनीतिक, आर्थिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण है:

रणनीतिक स्वायत्तता: ‘दूसरे के भरोसे’ कब तक?

किसी भी देश के लिए अपने महत्वपूर्ण रक्षा उपकरणों के लिए दूसरों पर निर्भर रहना हमेशा एक जोखिम भरा काम होता है. इंजन जैसी मुख्य चीज़ के लिए विदेशी निर्भरता का मतलब है कि भू-राजनीतिक तनाव या अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों की स्थिति में हमारी वायुसेना कमज़ोर पड़ सकती है. कावेरी का सफल होना इस रणनीतिक जोखिम को कम करेगा और हमें अंतरराष्ट्रीय दबाव से बचाएगा. सोचिए, अगर किसी लड़ाई के दौरान दुश्मन देशों से पुर्जे न मिलें, तो क्या होगा?

आर्थिक लाभ: पैसे बचाओ, देश बढ़ाओ!

भारत को अगले कुछ दशकों में हज़ारों जेट इंजन की ज़रूरत होगी, चाहे वो तेजस Mk1A, Mk2 या भविष्य के AMCA (एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट) के लिए हों. विदेशी इंजन खरीदना अरबों डॉलर का सौदा है. अगर हमारा अपना इंजन हो, तो न केवल बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा बचेगी, बल्कि ‘मेक इन इंडिया’ को बढ़ावा मिलेगा, रोज़गार पैदा होंगे और भारत रक्षा निर्यात में भी एक बड़ी शक्ति बन सकता है.

तकनीकी शक्ति: दुनिया को दिखाओ, हम भी कम नहीं!

जेट इंजन बनाना दुनिया के कुछ ही देशों के बस की बात है. अगर भारत इसमें महारत हासिल कर लेता है, तो यह विश्व मंच पर उसकी तकनीकी शक्ति का बड़ा प्रमाण होगा. यह दूसरे देशों को भी भारत के साथ रक्षा क्षेत्र में सहयोग करने के लिए प्रोत्साहित करेगा.


आगे की राह: कावेरी का ‘पुनर्जन्म’ और भविष्य के इंजन

DRDO और GTRE अभी भी कावेरी इंजन को पूरी तरह से छोड़ने के मूड में नहीं हैं. वे इसके ‘डेरिवेटिव’ (Derivative) इंजन पर काम कर रहे हैं, जिसका लक्ष्य 73-74 kN थ्रस्ट पाना है. इसके लिए फ्रांस की Safran (जो Rafale के M88 इंजन बनाती है) के साथ तकनीकी सहायता ली गई थी. इस सहयोग ने कावेरी के कंप्रेसर और आफ्टरबर्नर जैसी कुछ महत्वपूर्ण कमियों को दूर करने में मदद की है.

अब चर्चा है कि भारतीय वायुसेना भी कावेरी के इस नए वर्जन को तेजस Mk1A के मिड-लाइफ री-इंजनिंग (लगभग 10-15 साल बाद विमान के इंजन बदलने की ज़रूरत पड़ने पर) के लिए सपोर्ट कर सकती है. इसके अलावा, GTRE का दीर्घकालिक लक्ष्य कावेरी 2.0 विकसित करना है, जिसका थ्रस्ट 90-100 kN तक हो, जो भविष्य के तेजस Mk2 और AMCA जैसे भारी और उन्नत विमानों के लिए उपयुक्त हो सकता है. यह अमेरिकी GE F414 इंजन के बराबर या उससे बेहतर होगा.

हालांकि, यह एक लंबा और बेहद महंगा सफर है. एक फाइटर जेट इंजन को ज़मीनी परीक्षणों से लेकर हवा में प्रदर्शन तक पहुंचने में कई साल और खरबों रुपये लगते हैं. लेकिन, भारत सरकार और DRDO इस प्रोजेक्ट को लेकर गंभीर दिख रहे हैं, क्योंकि यह देश की रणनीतिक आत्मनिर्भरता के लिए अनिवार्य है.


कावेरी इंजन की कहानी सिर्फ़ एक तकनीकी प्रोजेक्ट की कहानी नहीं है. ये भारत के आत्मसम्मान, उसकी रणनीतिक दूरदर्शिता और आत्मनिर्भर बनने की उसकी अदम्य ललक का प्रतीक है. कावेरी इंजन भले ही तेजस के लिए अपनी प्रारंभिक भूमिका में पूरी तरह सफल न रहा हो, लेकिन इसने जो अनुभव और ज्ञान दिया है, वह अमूल्य है. यह ज्ञान भारत को भविष्य के ज़्यादा शक्तिशाली और उन्नत इंजनों को विकसित करने की क्षमता देता है. अब देखना यह है कि क्या कावेरी अपने ‘कायापलट’ के बाद भारत के हवाई युद्ध में एक ‘गेम चेंजर’ साबित हो पाता है. क्योंकि जब तक हम अपना इंजन नहीं बनाएंगे, तब तक हम सही मायने में पूरी तरह रक्षा आत्मनिर्भरता हासिल नहीं कर सकते.

तो इस पूरी कहानी को पढ़कर आपके मन में क्या विचार आता है? क्या आपको लगता है कि भारत को अपने स्वदेशी इंजन प्रोजेक्ट्स में और तेज़ी लानी चाहिए? अपनी राय हमें कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं.

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